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सिकी हस्तशिल्प : घास-फूस का रंगीन संसार

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बिहार की माटी में देशीपन की जो सोंधी खुशबू है उस खुशबू को लोक कलाओं एवं शिल्पों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित करने का काम ग्रामीण महिलाओं द्वारा सदियों से किया जा रहा है । शिल्प कर्म में संलग्न महिलाओं ने अपनी आँचल का छाँव दे कर बिहार के शिल्पों को इतने यत्न से संरक्षित एवं संवर्धित किया की इस मिट्टी से निकल कर एक से बढ़ कर एक लोक कला एवं शिल्पों ने वैश्विक पटल पर अपनी खूबसूरती का परचम लहराया है । फिर बात चाहे मिथिला चित्रकला की हो या सुजनी शिल्प की या टिकुली शिल्प की या सिकी शिल्प की । ऐसा लगता है कि बिहार को लोक कला की देवी का विशेष वरदान प्राप्त है । जिस कारण मिथिला चित्रकला , टिकुली शिल्प, मंजूषा चित्रकला जैसे कई लोक कला दैनिक उपयोग में बिहार के घर आँगन में रचे बसे हैं  । परंतु जिस तरह पश्चिम की आँधी में फँसी हमारी आज की युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से उखड़ आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागी जा रही है वो चिंतनीय है । इस दौड़ ने न केवल उन्हें अपनी जड़ों से काट दिया है बल्कि इन लोक कला एवं शिल्पों के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है । ऐसे में आज की यह युवा पीढ़ी बिहार क...

सुई-धागा की रंगीन दुनियाँ : सुजनी

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रत्नगर्भा मिथिला की उर्वर भूमि पर आपको रंग-बिरंगी लोक कला एवं हस्तशिल्पों का एक से बढ़कर एक उदाहरण देखने को मिलेंगे । मिथिला पेंटिंग हो या फिर सिक्की क्राफ्ट हो सबने अंतराष्ट्रीय कला जगत को अपनी खूबियों से आकर्षित किया है । पर मिथिला पेंटिंग की चकाचौंध से हम इतने ना सम्मोहित हो गए कि हमने अपने आसपास से विलुप्त हो रही अन्य शिल्प विधाओं पर ध्यान ही नही दिया । इसी का परिणाम है कि सुजनी शिल्प जो हमारे हस्तशिल्पों के गलमाल में गुथा एक बेजोड़ नगीना था अपने क्षेत्र से विलुप्त हो मुजफ्फरपुर जिला के भूषरा गांव का कंठहार बन चुका है । ये सोचने वाली बात है कि जिस सुजनी कला को मिथिला के शिल्पियों ने विश्व पटल पर ना केवल प्रसिद्धि बल्कि स्थापित भी किया और तो और एक से बढ़ कर एक शिल्पकारों ने सुजनी हस्तशिल्प का राष्ट्रीय पुरस्कार तक बिहार की झोली में लाया उस मिथिला से आज ये शिल्प विलुप्त होने के कगार पर है और इसका नाम लेने वाला भी उंगलियों पर गिने जाने योग्य बचा है । क्या आप मधुबनी जिले के पंडौल की बेटी रांटी की बहू कर्पूरी देवी को भूल सकते हैं जिन्होंने ना केवल खुद को सुजनी कला के साथ-साथ मिथिला चित्रकल...

लोकनायक का नायकत्व

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किसी भी भाषा का साहित्य हो उसका आधार स्थानीय लोक संस्कृति ही होता है । पर बात जब मैथिली साहित्य की हो तो ये कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि जिस मैथिली शिष्ट साहित्य का ध्वज विभिन्न मंचो से वर्षों से हम मैथिल ढोते आ रहें हैं उसका तो उद्गम ही लोक संस्कृति से है । क्योंकि ज्योतिरीश्वर ठाकुर लिखित वर्णरत्नाकर ( 13वीं-14वीं शताब्दी- मैथिली साहित्य का पुरातन प्रमाण ) में लोरिकायन, विरहा, लगनी जैसे खांटी लोक की विषयवस्तु का उल्लेख मिलता है । ये एक अलग बात है कि लोक साहित्य को प्रॉपर साहित्यिक दर्जा मैथिली शिष्ट साहित्यकारों द्वारा भी तब दिया गया जब डॉ. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा मिथिला परिक्षेत्र में प्रचलित लोक गाथाओं में से सलहेस गीत, दीनाभद्री गीत और नेबार गीत को लिपिबद्ध किया गया । इसमे से गीत सलहेस 1881 ई. में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल के मैथिली अंक मैथिली क्रिस्टोमैथी में तथा शेष दो गीत दीनाभद्री और गीत नेबार जर्मनी के जर्नल में प्रकाशित हुवा । उसके बाद  1951 ई. इंट्रोडक्शन ऑफ द फोक लिटरेचर ऑफ मिथिला- जयकांत मिश्र, 1962 ई. मैथिली लोक महाकाव्य- डॉ. पूर्णानंद दास, 1963 ई. मैथिली ल...

वीर लोरिक : प्रमाणिकता एवं भौगोलिक जाँच पड़ताल

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वीर लोरिक और लोरिकायन  किसी भी क्षेत्र या समाज की लोकगाथा उस क्षेत्र या समाज विशेष के जीवन चरित्र तथा लोक संवेदना का प्रकटीकरण होता है । जिसमें समाजिक स्तर पर ऐसे लोकोपकारी वीर नायक को माध्यम बनाया जाता है जिससे जीवन चरित से समाज को प्रेरणा मिलती है । वीर लोरिक एक ऐसे ही लोक नायक हुवे जिनके जीवन चरित को लोक गाथा के रूप में समाज के सभी वर्गों ने अपनाया । देखते ही देखते इनकी ख्याति समस्त उत्तर भारत विशेषकर बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश  के जन समाज के कंठो में व्याप्त हो गई । लोक कंठो में व्याप्त इस लोक गाथा ने एक कंठ से दूसरे कंठ होते हुवे मीलो लंबा सफर तय किया । मौखिख रूप में सफर करने के कारण इसमें आंशिक रूप से स्थानीय जनों द्वारा थोड़ा बहुत तथ्यात्मक जोड़ घटाव भी होता रहा । स्थानीयता के संग जुड़ाव हो सके इसके लिए काल्पनिक स्थल औऱ कुछ काल्पनिक पात्रों को या तो गाथा में जन्म दिया गया या फिर किसी पात्र का नाम तक परिवर्तन कर दिया गया । इसका परिणाम ये हुवा की जब इन लोक नायकों पर शोध कार्य आरंभ हुवा तो शोधकर्ताओं ने अपने शोध पत्रों में कई विसंगतियों को शामिल कर लिया और इन विसंगतियों ने ...

मिथिला में भित्ति चित्रकला

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मिथिला में भित्तिचित्र  भित्तिचित्र प्राचीन समय से ही ग्रामीण जनमानस के विचारों की अभिव्यक्ति का पटल रहा है । गुफा-कंदराओं की दीवारों से शुरू हुई यह कला यात्रा आज भी अनवरत जारी है । ऐसे में आज मैं मिथिला चित्रकला में जिसे भित्तिचित्र के तौर पर ही विश्व ने सर्वप्रथम जाना उस पर कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ । साहस इसलिए कि इसमें कुछ ऐसी बातें लिखी गयी है जिससे इतिहास भले ही सहमत हो परंतु इस कला का वर्तमान जरूर मेरे से कुछ प्रश्नों के उत्तरों का प्रमाण माँगेगा और मैं उत्तरों का प्रमाण नही दे पाऊँगा क्योकि लोक व्यवहार में शामिल इस भित्तिचित्र कला की आत्मा को सीमेंट औऱ ईट के गठजोड़ ने समूल नष्ट करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली है । मिथिला क्षेत्र में मिट्टी के दीवालों पर पाई जाने वाली यह कला मुख्यतः दो तरह के उद्देश्यों के निमित्त बनाया जाता था । प्रथम, घर के अंदरूनी हिस्से, प्रांगण की सुंदरता तथा घर एवं आँगन के घेराबन्दी वास्ते प्रयुक्त बाहरी दीवालों की सुंदरता हेतू की जाने वाली नक्कासी एवं द्वितीय, लोक संस्कार पर्वों जैसे मुंडन, जनेऊ, विवाह, मृत्यु आदि शुभ और अशुभ अवसरों पर की जा...

झिझिया : लोकनृत्य या जादू-टोना

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झिझिया और जोग-टोन झिझिया बिहार का पारंपरिक तंत्र-मंत्र पूरित अनुष्ठानिक गीतात्मक लोक नृत्य है । यह नृत्य शारदीय नवरात्र के दसों दिन प्रथम दिन से आरंभ होता है और अंतिम दिन की रात्रि तक गांव-घर की महिलाओं और कुँवारी कन्याओं के द्वारा सम्पूर्ण बिहार यहां तक कि नेपाल के मधेश क्षेत्र में भी की जाती है । समाज में डायन-जोगिन (योगिन) से जुड़ी शक्तियों के प्रति यह धारणा है कि ऐसी बुरी शक्तियों से स्त्रियां अपने परिवार (खास कर मायका पक्ष) की रक्षा इस अनुष्ठानिक लोक नृत्य के माध्यम से करती है । समाज मे बड़े-बुजर्गों के मुहँ से हमने ये बात जरूर सुनी होगी की शारदीय नवरात्र के अष्टमी तिथि की मध्य रात्रि के दौरान ही डायनों को अपनी जोग-टोन (जादू-टोना) में सिद्धि प्राप्त होती है । जिसके परीक्षण हेतू वो गर्भवती स्त्रियों के गर्भ पर या नवजात शिशु पर या फिर नौजवान बेटे पर अपने मारक शक्ति का प्रयोग करती है । इसलिए हम आप आज भी देखते है कि हमारे घरों की बुजुर्ग महिलाओं द्वारा शारदीय नवरात्र के समय नवजात बच्चों को काला कपड़े में लहसुन की कलियाँ, हींग, राई जैसी चींजों को लपेट उसे काले धागे में बांध गले मे बाँधा ज...

मिथिला चित्रकला में प्रयुक्त ट्री ऑफ लाइफ

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मिथिला चित्रकला में प्रयुक्त ट्री ऑफ लाइफ के क्या संकेत हैं ? मिथिला चित्रकला में प्रयुक्त ट्री ऑफ लाइफ प्रतीक चिन्हों का एक लंबा इतिहास रहा है, जो मिथिला क्षेत्र के जीवन पद्धति एवं संस्कृतियों का परिचायक है । प्रत्येक संस्कृति के महत्व को समझाने के लिए वहाँ की लोक कला को समझना सबसे सुंदर उपाय है । ट्री ऑफ लाइफ का अर्थ कई लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है पर सबके मूल में यही है कि यह मानव जीवन एवं प्रकृति के सभी पहलुओं के मध्य सम्बन्धों का प्रतीक है । पेड़ की जड़ें जो मिट्टी मे ं गहराई से पहुंचती हैं, वो मानव प्रजाति का पृथ्वी से पालन-पोषण संबंध को दर्शाती हैं । पत्तियां और शाखा आकाश की ओर उन्मुख हो, इस चराचर जगत को सूर्य से प्राप्त होने वाली जीवन ऊर्जा की ओर संकेत कर वृद्धि को दर्शाती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ट्री ऑफ लाइफ मानव जीवन को आस-पास की दुनिया से गहराई से जोड़ी हुई हैं । परिवार और वंश के प्रतीक के रूप में ट्री ऑफ लाइफ व्यक्ति का उस परिवार के पूर्वजों से संबंध को भी दर्शाता है दूसरे शब्दों में यह परिवार की पीढ़ियों का प्रतीक है । बीज से पेड़ के अंकुरित होने, बढ़ने और शा...