जगदंबा देवी : मिथिला चित्रकला की पहली पद्मश्री



प्राचीन काल से ही मिथिला की पावन भूमि का कीर्तिध्वज धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में विश्व पटल पर स्थापित है । वर्तमान में कुछ ऐसा ही कला एवं संस्कृति के मामले में भी है । यहाँ की असाधारण मिथिला चित्रकला ने मिथिलानियों के बदौलत पूरे विश्व मे ख्याति प्राप्त कर ली है । दूसरे शब्दों में कहें तो पूरे विश्व में यह कला मिथिला की सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान के रूप में स्थापित हो चुकी है । पर घर की दीवालों से उतर आँगन की दहलीज को पार कर विश्व की अनंत यात्रा पर निकलना उस समय की मिथिलानियों के लिए इतना आसान नही था, जहाँ घर की चौखट को लाँघने का सीधा मतलब चारित्रिक पतन समझा जाता था । परंतु इस तरह के सामाजिक परिवेश में भी कुछ मिथिलानियों ने हिम्मत दिखाई और कलम-कूँची को अपना हथियार बना इन समाजिक बंदिशों से दो-दो हाथ कर ना केवल अपने पंखों की बेड़ियों को काट फेंका बल्कि यह सुनिश्चित किया कि अपनी आने वाली पीढ़ियों के अरमानों के पंख को भी इन समाजिक कुरीतियों की बेड़ियों से ना बांधा जाय । परिणाम आज सबके सामने है अशिक्षित,गवाँर, अनगढ़ हाथों की कला से आज पूरा विश्व चमत्कृत है । समाजिक बंधनो की बेड़ियों को उतार फेंक कला कर्म की बदौलत खुद की वैश्विक पहचान बनाने वाली मिथिलानियों की संघर्ष की कहानी के पहली कड़ी में पद्मश्री जगदंबा देवी की कला साधना पर अपनी लेखनी के साथ आज उपस्थित हो रहा हूँ ।
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान,
निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान ।
सुमित्रानंदन पंत की यह पंक्ति हमे बताती है कि कविता का जन्म वियोग और आह के बीच हुआ । पर जब मैं इन पंक्तियों को मिथिला की लोक कला के संदर्भ में देखता हूँ तो मिथिला चित्रकला को भी विधवा महिलाओं के आह और पति के वियोग से ही उपजा पाता हूँ । खास कर मिथिला चित्रकला के प्रथम पद्मश्री जगदंबा देवी के जीवन संघर्षों को तो इन पंक्तियों के काफी ही करीब पाता हूँ । वैधव्य जीवन के अंतर्मन की पीड़ा से उपजे भाव को इनकी पवित्र आत्मा ने जब रंग और कूची के सहारे मिथिला के दीवालों पर चित्र रूप में उकेरना शुरू किया तो पूरा विश्व इन चित्रों के सम्मोहन में बंध मिथिला के सुदूर देहात जितवारपुर की ओर खींचा चला आया । इतना ही नही सहज, सरल हृदय की स्वामिनी ने जब ममता की आँचल का प्यार उन्मुक्त भाव से खुले हाथों इन परदेशियों पर लुटाया तो इनको भी इनमें अपनी माँ का प्यार नजर आया । शायद यही कारण था कि उपेन्द्र महारथी जैसे कला साधक इन्हें माँ ही कहा करते थे । ये इनके ग्रामीण लोक कलाकारों के प्रति स्नेह और प्रेम का ही परिणाम था कि मिथिला चित्रकला के कलाकार प्रेमवश जगदम्बा देवी को "काको" कहा करते थे ।

➤मिथिला चित्रकला की प्रथम पद्मश्री जगदंबा देवी

मधुबनी जिला की भोजपरौल गांव की बेटी जगदम्बा देवी को जब बालकृष्ण लाल दास ने ब्याह कर जितवारपुर गाँव का बहु बना लाया होगा तो किसे पता था कि लजाई-सुकचाई यह बाल कन्या आगे जा मिथिला चित्रकला का कोहिनूर बन अपनी चमक से पूरे विश्व मे जितवारपुर का नाम चमकायेगी । घर की चारदीवारी के बीच इस नई दुल्हन ने अपने गृहस्थी को तब आरंभ किया जब इनके गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेलने की उम्र थी । खैर जितवारपुर ही अब इनकी कर्मभूमि थी । कुछ साल तक पति-पत्नी ने संग-संग प्रेम से वैवाहिक जीवन के दायित्वों का भार अपने कंधे पर ले घर-गृहस्थी को सम्हाला ही था कि देव ने अपना दंड प्रहार कर दिया । जीवन के डगर पर साथ चलने का वचन देने वाला उनके सुख-दुख का साझीदार उनका पति हमेशा के लिए उनसे दूर हो गया । माथे का सिंदूर , गले का मंगलसूत्र, हाथों की मेहंदी, पैरों का महावर से इनका रिश्ता सदा के लिये खत्म हो चुका था और अगर कुछ बचा था तो सफेद साड़ी में लिपटा बाल वैधव्य का अभिशप्त जीवन ।
बाल वैधव्य का पहाड़ सा जीवन आखिर कटे तो कैसे कटे ? अब ऐसे में सहारा भी था तो उसी देव का जिसने अपने हाथों से इनकी गृहस्थी को उजाड़ा था । जगदम्बा देवी ने अपना बचा-खुचा जीवन इनके पूजा-पाठ में ही समर्पित कर दिया । इस दौरान मिथिला में आये भीषण अकाल से उत्पन्न आर्थिक संकट के निवारण के लिए भारत सरकार ने इस क्षेत्र की लोक सांस्कृतिक चित्रकला को गरीबी और भूख के खिलाफ जंग में हथियार बनाने का सोचा । पर दिक्कत थी कि जहाँ के समाज मे पराए पुरषों से बात भर करने का मतलब ही चारित्रिक पतन होता हो, उस समाज मे इस लड़ाई को लड़ने के खातिर घर के दहलीज से बाहर पहला कदम रखेगा तो कौन ? ऐसे में जगदम्बा देवी ने साहस किया क्योकि वह स्त्री मन के स्वप्न पंखों के असमय झुलस जाने की पीड़ा को जानती थी । एक विधवा होने के नाते वो जानती थी कि अपनी आवश्यक जरूरतों के पूरा ना हो पाने का दर्द कैसा होता है । और ये वो दर्द ही था जिसने उन्हें अपने आँगन के दरवाजों को ऐसे पुरषों के लिए खोलने की हिम्मत दी जिसे वो आज तक जानती भी ना थी । स्वभाविक है उस समय इसका विरोध भी हुवा होगा पर जगदंबा देवी ने अब संकल्प ले लिया था कि वो मिथिला चित्रकला को अपना नही बल्कि आने वाली पीढ़ियों के आत्मसम्मान का एक सशक्त माध्यम बनायेगी तो बनायेगी । ऐसे में उनके आँगन के दरवाजे अब सबके लिए खुल चुके थे, खिड़कियों से नव प्रभात की किरणों का आगमन हो चुका था । जिस आँगन में पति वियोग और निःसन्तान से उत्पन्न सूनापन घर कर गया था उस आँगन में अब पूरे गाँव की बहू-बेटियों की हँसी-ठिठोली और रंग-रभष का नाद गूँज रहा था । जगदंबा देवी के एकाकी जीवन से उपजा दर्द इस मलहम के लेप से ना जाने कब छूमंतर हो गया उन्हें पता ही नही चला । वो अब पूरी तरह से मिथिला चित्रकला और गाँव की बहू-बेटियों की हो चुकी थी । गाँव की महिलाओं के लिए भी वो जगदंबा देवी नही बल्कि उनकी प्यारी "काको" थी । इनके आँचल की ममतामयी छाँव के नीचे मिथिला चित्रकला के उन नन्हें पौधों को सींचा जा रहा था जो भविष्य में मिथिला चित्रकला का सांस्कृतिक दूत बन इस कला को दुनियाँ के कोने-कोने तक ले जाने वाले थे । इस दौरान जल्द ही इनकी मुलाकात भास्कर कुलकर्णी से होती है जिन्होंने उन्हें पहली बार हस्तनिर्मित कागज दिया और इनकी बनाई पेंटिंग के कुछ रुपये भी दिए । पर जगदंबा देवी की जरूरत अब ये कागज के टुकड़े नही थे । इसलिये उन्होंने उन पैसों के एवज में और हस्तनिर्मित कागज की मांग की ताकि अपने अंदर की भावनाओं को रंगीन रूप में अधिक से अधिक मात्रा में कागज पर उतार सके ।

➤In 1975, Jagdamba Devi received the Padma Shri award 
from the President of india Fakruddin Ali Ahmed.

उस समय महाराष्ट्र से हस्तनिर्मित कागज आता था । जगदम्बा देवी इस कागज को गाँव की बहू बेटियों में भी बांट देती थी । उसके बाद बनाये चित्रों का ग्रेडिंग के अनुसार 25 रुपये, 15 रुपये और 10 रुपये के तीन वर्गों में बांट कर रखा जाता था जिसे बाहर से आये कलाप्रेमी उनके यहाँ से खरीद कर ले जाते थे । यही रुपये गाँव की महिलाओं की खुद की आमद होती थी । इसी खरीद बिक्री के क्रम में महान कलाप्रेमी उपेन्द्र महारथी के साथ इनकी भेंट हुई । इसके बाद तो इन्हें पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत नही पड़ी उपेन्द्र महारथी अपने साथ कागज लाते रहते और बने हुवे पेंटिंग को खरीद ले जाते रहते । धीरे-धीरे विश्व कला बाजार में इनकी पेंटिंग की चर्चा होने लगी । इनके बनाये चित्रों का पहली बार 10 जनपथ नई दिल्ली के सीसीआईसी में प्रदर्शनी लगा । जिसे कला प्रेमियों ने हाथों हाथ लिया । तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से इनका प्रगाढ़ संबंध भी इसी दौरान विकसित हुवा था । पेंटिंग की दुनियाँ में इनका बढ़ता नाम ने इनके आँचल की खूँट में लोक कला का बिहार स्टेट अवार्ड-1969 ई., नेशनल अवार्ड-1970 ई. जैसे पुरस्कारों को ला बांधा था । पर असली कहानी तो अब शुरू होने वाली थी 1975 ई. में भारत सरकार ने मिथिला की सांस्कृतिक लोक चित्रकला के इनके वर्षों की साधना को देखते हुवे इन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा । कला के क्षेत्र में मिल रही एक से बढ़ कर एक उपलब्धि और कलाप्रेमियों एवं कलाकारों के द्वारा मिल रहा आत्मीय प्रेम का नित रसपान करता इनके हृदय ने लोभ, मोह के बंधन को कब का उतार फेंक दिया था । अब तो पूरा कला जगत ही इनका कुटुंब था । अब इन्हें उस ईश्वर से भी कोई शिकायत नही थी जिसने इन्हें बाल विधवा का अभिशप्त जीवन दिया था । अब इनका अधिकांश समय भगवत भजन में बीतने लगा । उनकी आंखों में संतोष था कि उन्होंने मिथिला चित्रकला के ऋण से लगभग खुद को मुक्त कर लिया था । ऐसे में 8 जुलाई 1984 ई. को मिथिला की समृद्ध लोक सांस्कृतिक चित्रकला की विरासत को सीता देवी, महासुंदरी देवी जैसे दक्ष हाथों को सौंप जगदंबा देवी महापरिनिर्वाण की अनंत यात्रा पर निकल गई और मिथिला चित्रकला का यह स्वर्णिम अध्याय सदा के लिए बंद हो गया ।

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