मिथिला में भित्ति चित्रकला
मिथिला में भित्तिचित्र
भित्तिचित्र प्राचीन समय से ही ग्रामीण जनमानस के विचारों की अभिव्यक्ति का पटल रहा है । गुफा-कंदराओं की दीवारों से शुरू हुई यह कला यात्रा आज भी अनवरत जारी है । ऐसे में आज मैं मिथिला चित्रकला में जिसे भित्तिचित्र के तौर पर ही विश्व ने सर्वप्रथम जाना उस पर कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ । साहस इसलिए कि इसमें कुछ ऐसी बातें लिखी गयी है जिससे इतिहास भले ही सहमत हो परंतु इस कला का वर्तमान जरूर मेरे से कुछ प्रश्नों के उत्तरों का प्रमाण माँगेगा और मैं उत्तरों का प्रमाण नही दे पाऊँगा क्योकि लोक व्यवहार में शामिल इस भित्तिचित्र कला की आत्मा को सीमेंट औऱ ईट के गठजोड़ ने समूल नष्ट करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली है ।
मिथिला क्षेत्र में मिट्टी के दीवालों पर पाई जाने वाली यह कला मुख्यतः दो तरह के उद्देश्यों के निमित्त बनाया जाता था । प्रथम, घर के अंदरूनी हिस्से, प्रांगण की सुंदरता तथा घर एवं आँगन के घेराबन्दी वास्ते प्रयुक्त बाहरी दीवालों की सुंदरता हेतू की जाने वाली नक्कासी एवं द्वितीय, लोक संस्कार पर्वों जैसे मुंडन, जनेऊ, विवाह, मृत्यु आदि शुभ और अशुभ अवसरों पर की जाने वाली चित्रकारी । यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ की मिथिला चित्रकला का प्रयोग मिथिला के मृत्यु सम्बन्धी कर्मकांड (द्वादशा कर्म) के व्यवहार में अशुभ कार्यों के वक्त भी किया जाता है जिस मृत्यु को अशुभ माना जाता है उसे मिथिला जो बड़े-बड़े दार्शनिकों के दर्शन ज्ञान का केंद्र रहा वहाँ अशुभ नही माना जाता । इस प्रकार यह बहुत ही साफ है कि मिथिला में भित्तिचित्र दो तरह के कामों में प्रयुक्त होते थे । प्रथम, सजावट एवं सुंदरता हेतू तथा द्वितीय अनुष्ठानिक कर्मकांडों में प्रयुक्त ।
सजावट वाले भित्तिचित्र में प्राकृतिक चीजों (पेड़-पौधे, जीव-जंतु आदि ), घर-गृहस्थी के आर्थिक-गैर आर्थिक क्रिया कलापों (मछली बेचने वाली स्त्री, चरवाहा का चित्र, फसल कटाई और देवी-देवता से सम्बन्धी चित्र इस वर्ग में कृष्ण द्वारा गोपियों के वस्त्र को स्नान के क्रम में कदम्ब के पेड़ पर छुपाने के चित्रण, कालिया मर्दन, माखन चोरी, जयमाल, डोली-कहार, सिंह सवार देवी दुर्गा का चित्रण आदी) का चित्रण होता था । अनुष्ठानिक कर्मकांडों में प्रयुक्त भित्तिचित्र में कोबर लिखिया में प्रयुक्त विभिन्न चित्र (जैसे कमलदह, पुरैन, बांस, नैना-जोगिन, नवग्रह, मछली, कछुआ आदि), पूजा पाठों के दौरान घर के दीवारों पर बनने वाला शुभफलदायी विभिन्न चिन्ह आदि शामिल हैं ।
मिथिला में भित्तिचित्र बनाने के तरीके तथा प्रयुक्त सामग्रियों के आधार पर भी इनमें स्पष्ट रूप से अंतर दिखाई देता है । मिथिला में भित्तिचित्र के निरूपण में चिकनी जलोढ़ मिट्टी, गेहूँ या धान की भूसी के मिश्रण, गोबर आदि से तैयार मिट्टी को दीवाल पर थोप (चिपका) कर उसे फिर भिन्न-भिन्न आकृतियों में काट औऱ तरास कर हाथी, घोड़ा, बाघ, फूल, पेड़, लताओं आदि का रूप दिया जाता था (चित्र-1) । इसी तरह मिट्टी के दीवाल पर गीली मिट्टी का कई स्तर लेप चढ़ा (छछारना) उसके सूखने के बाद ईंट या खपड़ा को महीन चुर्ण के रूप में पीस उसे पानी मे घोल कर तैयार गेरुवा रंग, कोयले को घिसकर उससे तैयार काला रंग तथा चून से तैयार उजला, गोबर के घोल से भूरा रंग आदि का प्रयोग कर घर की बाहरी दीवालों पर भिन्न-भिन्न तरह की आकृतियों को उकेर दीवालों की सुंदरता बढ़ाई जाती थी (चित्र-2) । इस तरह का चित्रण मिथिला में निम्न जाति वर्गों के घरों पर पहले भी बनती थी आज भी ये कहीं कहीं मिल जाते हैं । इस तरह के भित्तिचित्रों में प्रयुक्त सामग्रियों के साथ कई प्रकार के फूल पत्तियों से कई तरह के रंग तैयार कर मिथिला में स्वर्ण जातियों की महिलाओं द्वारा अपने घर आँगन में होने वाले अनुष्ठानिक कर्मकांडों से संबंधित चित्रों को बनाया जाता था । अनुष्ठानिक कर्मकांडों में प्रयुक्त भित्तिचित्र में कोबर लिखिया में प्रयुक्त विभिन्न चित्र जैसे कमलदह, पुरैन, बांस, नैना-जोगिन, नवग्रह, मछली, कछुआ आदि के साथ-साथ अन्य मांगलिक चिन्हों का भी चित्रण सूती कपड़े के टेमी ( सूती कपड़ा के छोटे से टुकड़े को हथेली पर रगड़ कर गोल लंबाकार तैयार ब्रश की जगह प्रयुक्त वस्तु) से किया जाता था (चित्र-3)। कालांतर में यही वर्तमान में विश्व प्रसिद्ध मधुबनी पेंटिंग/मिथिला पेंटिंग के तौर पर जग प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार जब मधुबनी पेंटिंग को लेकर हम यह कहते हैं कि यह मिथिला में बनने वाला भित्तिचित्र था तो इसे इस तरह समझे कि यह मिथिला में बनने वाले भित्तिचित्रों की विभिन्न शैलियों में से एक था ।
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