गोदना पेंटिंग और मिथिला चित्रकला

मिथिला में गोदना, गोदना गीत और गोदना पेंटिंग-
मिथिला में गोदना शरीर की ऊपरी त्वचा पर एक विशेष प्रकार की स्याही ( काले तिल को अच्छे से भून कर उससे से तैयार चिपचिपा तरल पदार्थ को जला कर तैयार किया जाता है ) और बदनिन (गोदना में प्रयुक्त विशेष सुई) की मदद से बार-बार गोद कर मनचाही आकृतियों, नाम, चिन्ह आदि उकेरे जाने वाला श्रृंगारिक प्रसाधन है । इस कार्य को मुस्लिम जाति की नट महिलाओं ( नट अरजाल हैं। जो भारतीय दलित जातियों से कन्वर्ट मुसलमान का एक वर्ग हैं । अरजाल समूह में हलालखोर, भंगी, हसनती, लाल बेगी, मेहतर, नट, गधेरी आदि आते हैं ) के द्वारा सम्पन्न किया जाता था । इस दौरान गोदनहारिन महिलाओं द्वारा गीत गा कर महिला का ध्यान गोदना से उपजे दर्द से हटाया जाता था । मैथिल लोक संस्कृति में इन गीतों को ही गोदना गीत के नाम से जाना जाता है । ये गोदना गीत आज भी मिथिला में लोक संस्कृति के अंग के तौर पर प्रचलन में हैं पर गोदना गोदने वाली मैथिल समाज से गायब हो चुकी है । आप लोगों के लिए यहाँ मैं दो गीत जो बहुत ही प्रसिद्ध है उसे रख रहा हूँ । इस गोदना गीत में गोदना के प्रति स्त्रियों के मन का लगाव का अंदाजा सहज लगाया जा सकता हैं । इन दो गीतों में नव यौवना मिथिलानी गोदना करवाने के लिए क्या-क्या जतन करती है उसका बड़ा ही सुंदर वर्णन किया गया है । आइये इस गीत को देखते हैं -
1.
उतरहि राज सं जे एलै एक नटिनियाँ रे जान ।
रे जान एलै एक नाटिनियाँ रे जान ।
रे जान बैसि रे गेलै कदम बिरिछिये रे जान ।
रे जान बैसि रे गेलै कदम बिरिछिये रे जान ।
झिहिर-झिहिर बहलै, शीतल बसतिया रे जान ।
रे जान शीतल बसतिया रे जान ।
रे जान घर स बहरेलै सुनरी पुतहुवा रे जान ।
रे जान घर स बहरेलै सुनरी पुतौहवा रे जान ।
झारअ लगलै सुनरी अपन्न नामी नामी केसिया रे जान ।
रे जान नामी नामी केसिया रे जान ।
रे जान परिगेलै नटिन के नजरिया रे जान ।
रे जान परि गेलै नटिन के नजरिया रे जान ।
कहाँ भेलअ कियै भेलअ सुनरी पुतहौवा रे जान ।
रे जान सुनरी पुतौहवा रे जान ।
रे जान कोने सुनैर गोदना गोदेतै रे जान ।
रे जान कोने सुनैर गोदना गोदेतै रे जान ।
गोदना गोदौनी की तों लेबैं गे नटिनियाँ रे जान ।
की तों लेबैं गे नटिनियाँ रे जान।
रे जान कियै लेबैं कनक सितुआ रे जान ।
रे जान कियै लेबैं कनक सितुआ रे जान ।
गोदना गोदौनी लेबै कानक दुनु सोनमा रे जान ।
रे जान कानक दुनु सोनमा रे जान ।
रे जान लेबै हमे कीमती सोनमा रे जान । लेबै हमे कीमती सोनमा रे जान ।
उतरहि राज सं जे एलै एक नटिनियाँ रे जान ।
रे जान एलै एक नाटिनियाँ रे जान ।
रे जान बैसि रे गेलै कदम बिरिछिये रे जान !
रे जान बैसि रे गेलै कदम बिरिछिये रे जान !
2.
उतरहि राज स जे एलै, गोदना पारनी रे जान ! रे जान एलै गोदना पारनी रे जान । रे जान बैसि गेलै, चनन बिरिछिया रे जान ! रे जान बैसि गेलै, चनन बिरिछिया रे जान !
रे जान घर स बहरेलै, सुनरी पुतहुवा रे जान ! रे जान सुनरी पुतहुवा रे जान ! रे जान दियौ हे सासु, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान गोदना कौड़िये रे जान !
हम नय जानियो हे पुतहु, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान गोदना कौड़िये रे जान ! कहू रे गये, अपने ससुरबे रे जान ! रे जान समुआँ बैसल तोहे ससुरबे रे जान !
रे जान दियौ हे ससुर, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान गोदना कौड़िये रे जान । रे जान हम नय जानियो हे पुतहु, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान कहू रे गये, अपने भैंसुरबे रे जान ! रे जान पलंगा सुतल तोहे भैंसुर, बरैते रे जान !
रे जान जान दियौ हे भैंसुर, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान हम नय जानियो हे भावौ, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान कहू रे गये, अपने गोतिनिये रे जान ! रे जान भनसा करैतें तोहे गोतनी, बरैतिन रे जान !
रे जान दियौ हे गोतनी, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान गोदना कौड़िये रे जान । हम नय जानियो हे गोतनी, गोदना कौड़िये रे जान ! रे जान कहू रे गये, अपने बलमुँये रे जान ! रे जान कहू रे गये, अपने बलमुँये रे जान !
एतबा बचन सुनलनि, सुनरी पुतौहवा रे जान ! रे जान सुनरी पुतौहवा रे जान । रे जान ठोकि देलनि, बजर केबड़िया रे जान ! रे जान ठोकि देलनि, बजर केबड़िया रे जान !
खोली-खोली आहे धनी, बजर केबड़िया रे जान ! रे बजर केबड़िया रे जान ! रे जान जेबै हमे पुरूब राज, करब नोकरिया रे जान । रे जान जेबै हमे पुरूब राज, करब नोकरिया रे जान । रे जान आनि देबौ, गोदना कौड़िये रे जान !
एतबा बचन सुनलनि, सुनरी पुतौहवा रे जान ! रे जान सुनरी पुतौहवा रे जान । खोलि रे देलनि, बजर केबड़िये रे जान ! रे जान खोलि रे देलनि, बजर केबड़िये रे जान !
मिथिला में गोदना के प्रचलन के सम्बन्ध में यह धारणा है कि मिथिला पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का जब-जब आक्रमण होता था उनके द्वारा महिलाओं का जबर्दस्ती उठा कर अपने साथ ले जाया जाता था, ऐसे में सुरक्षा के दृष्टि से महिलाओं के शरीर पर गोदना गुदवाया जाने लगा, क्योंकि गोदना किये हुवे महिलाओं को वे छोड़ देते थे । इस गोदना को कालांतर में मैथिल स्त्रियों ने श्रृंगार के रूप में अपना लिया और मैथिल स्त्रियों के बीच गोदना के रूप में हाथ पर पति का नाम, देवता का चित्र एवं अन्य आकृति उकेरा जाना शुभ माना जाने लगा ।
कुछ समाजशास्त्री आजकल मिथिला मे गोदना को नारी उत्पीड़न से जोड़ कर देखते हैं । उन्होंने इससे उपजे दर्द को पुरुषों के वर्चस्व से जोड़ कर देखा है और मिथिला में नारी उत्पीड़न का इतिहास को मध्यकालीन भारत के इतिहास से जोड़ा है। जबकि मैथिल समाज मे इस तरह से नारी उत्पीड़न का प्रमाण नही के बराबर देखने को मिलता है । साथ ही गोदना को शरीर के जिन अंगों पर गुदवाया जाता था उसे पुरुषों के सामने खुला रखना उस मैथिल समाज के कल्पना से बाहर है जहां सर पर बिना साड़ी पल्लू या चुनरी के पुरुषों के बीच आना आज भी बहु-बेटियों के लिए सर्वमान्य नही है । हाँ ये अलग बात है कि गोदना गुदवाते वक़्त दर्द तो होता था पर गोदना के दर्द को मिथिला में साज-श्रृंगार के रूप में ना केवल दलित बल्कि हरेक जाति,वर्ग एवं सम्प्रदाय की महिलाओं ने हँस कर अपने ऊपर लिया है । इनमें दलित समुदाय की स्त्रियों ने काफी दिनों तक गोदना गुदवाने की परंपरा से खुद को जोड़ कर रखा ।
1970 के दशक में जर्मन मानवविज्ञानी फ़िल्म एरिका मोजर ने दुसाध महिलाओं को अतिरिक्त आय अर्जित करने के लिए कागज पर उन गोदना प्रतीक चिन्हों को उकेड़ने को प्रेरित किया जो उनके बदन पर चित्रित थे । यही मिथिला चित्रकला का गोदना पेंटिंग कहलाया। एरिका मोजर द्वारा प्रोत्साहित की गई दुसाध महिलाओं ने आगे जा कर गोदना के प्रतीक चिन्हों के अलावे अपनी मौखिक लोक जनश्रुतियों, लोकगाथाओंऔर सौंदर्यवादी परंपराओं को भी कागज पर चित्रित करना शुरू कर अपनी विशिष्ट चित्रशैली और तकनीक का निर्माण किया । परिणामस्वरूप देहचित्र के रूप में मिथिला चित्रकला को एक नया सौगात मिला ।

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