पसाहिन : मिथिला चित्रकला में बॉडी पेंटिंग


पसाहिन : मिथिला चित्रकला में देह चित्र
मानव शरीर पांच तत्वों अग्नि, वायु, जल, मिट्टी और आकाश से मिलकर बना है । इन पाँच तत्वों द्वारा ही हमारे शरीर में मौजूद कफ, पित्त और वात का संतुलन रखा जाता है । कफ, पित्त और वात में किसी भी तरह का असंतुलन हमें बीमार बनाता है । प्राचीन भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में कफ, पित्त और वात पर रंगों के सकारात्मक प्रभाव का प्रयोग हमारे भावनात्मक, शारिरीक और मानसिक असंतुलन को ठीक करने में वर्षों से कलर थेरेपी के रूप किया जा रहा है । रंगों के इस चिकित्सीय गुण से आम जन भी वाकिफ थे । जिसका प्रमाण हमारे लोक संस्कारों के साथ-साथ दैनिक जीवन मे भी देखने को जहाँ-तहाँ देखने को मिलता है।
'पसाहिन' नाम से एक ऐसा ही व्यवहार मैथिल समाज में मिथिला चित्रकला के देह चित्र के रूप में देखने को मिलता है । मिथिला चित्रकला में देह चित्र की दो शैली प्रचलित है - प्रथम पसाहिन और द्वितीय गोदना । पसाहिन जहाँ कलर थेरेपी के रूप में प्रचलित है वहीं गोदना एक्यूपंक्चर के सिद्धांत पर कार्य करता है और इन्हीं चिकित्सीय गुणों के कारण ही जन सामान्य में पसाहिन और गोदना (टैटू) प्रयोग में लायी जाती है ।अत्यधिक पसीना, अनिंद्रा, यूरिन, माइग्रेन, रक्त विकार आदि बीमारियों के नियंत्रण में माथे पर 'पसाहिन' चित्रकारी काफी उपयोगी है ।
मिथिला चित्रकला की देहचित्र शैली पसाहिन मुख्यतः श्रृंगारिक कर्म है । जिसके तहत स्त्रियों के कपाल (भाल) पर विभिन्न जड़ी-बूटियों से तैयार प्राकृतिक रंगों से विशिष्ट चित्रकारी की जाती है । पसाहिन चित्रकार को इस बात का ज्ञान होता था कि आपके माथे पर किस नस पर कौन-कौन से रंगों का प्रयोग करना है और उसका क्या प्रभाव आप पर पड़ेगा । इस तरह रंगों का प्रयोग कर एक विशिष्ट सुंदर चित्र आकृति बनाई जाती है। ये चित्र आकृति मिथिला में नवयुवतियों और विवाहित स्त्रियों के माथे पर अलग-अलग रूप में बनता है । मिथिला में प्रचलित इस देह चित्रकला को लोक संस्कारों (विवाह, द्विरागमन, बेटे के मुंडन और जनेऊ आदि) में स्त्री के श्रृंगारिक प्रसाधन के रूप में इस तरह शामिल कर दिया गया है कि आपको भले इसकी उपयोगिता का उतना भान ना हो पर लोक व्यवहार के माध्यम से आपको इसका फायदा जरूर मिलता रहे ।
मिथिला में वैसे तो विवाहित स्त्रियों और कुँवारी कन्याओं दोनों के कपाल पर श्रृंगार के रूप में पसाहिन चित्रकारी की जाती रही है । पर कन्या के विवाह के दिन इसका अत्यंत कर्मकांडी महत्व है । विवाह दिन विवाह कर्म से पूर्व सात बार जिस कन्या विवाह होना है उसके बालों को खोल कर पुनः कंघा कर उनके बालों का विन्यास (जुट्टी गूँथना) किया जाता है । अंतिम सातवीं बार जब बालों का विन्यास कर लिया जाता है तो कन्या के कपाल पर प्राकृतिक रंगों से एक विशिष्ट चित्र का चित्रण किया जाता है, यह चित्र कुँवारी कन्या के कपाल पर बनने वाले पसाहिन चित्र से अलग होते हैं । तद्पश्चात तीसी को उबाल कर तैयार लसलसिला पदार्थ (नबाब) लगा उस चित्र पर छोटी चमकी सितारा (खुद्दी चमकी) और बड़ी चमकी सितारा से पसाहिन चित्र को सजाया जाता है ।
पसाहिन चित्र बनाने हेतू उजला, पीला, नीला और लाल रंग का प्रयोग होता है, जिसमें लाल रंग सिंदूर या रक्त चंदन से, उजला रंग श्वेत चंदन से, पीले रंग पीत चंदन (पियौरी) से तथा नीला रंग एक विशेष वनस्पति के फूल एवं छाल से तैयार किया जाता है । इन रंगों का अपना एक ज्योतिषीय कारण भी है । इन चार रंगों का विवाह कर्म से पहले कपाल पर धारण करने का कारण यह है कि सृष्टि के प्रभावशाली ग्रहों का कल्याणकारी आशीर्वाद विवाह को तैयार हो रही कन्या को प्राप्त हो तद्पश्चात व्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे । श्वेत रंग शुक्र ग्रह को पसंद होने के कारण सर्वसिद्धि दायक है, पीला रंग पुखराज का प्रतीक होने के कारण वृहस्पति ग्रह को प्रिय है, जो धन समृद्धि दायक है , नीला रंग नीलम का प्रतीक होने से शनि-ग्रह को प्रिय है जो व्यवस्थापक है एवं लाल रंग मंगल ग्रह का प्रिय होने से सुख-शांति दायक है साथ ही यह शक्ति (भगवती गौरी) के आशीर्वाद का भी प्रतीक है । कन्या के कपाल पर पसाहिन चित्र को बनाने में बहुत समय लगता है इतने देर कन्या को स्थिर चित के साथ श्रृंगार के लिए बैठना पड़ता है जो आगामी दाम्पत्य जीवन मे उनकी एकाग्रता और स्थिरता का बोध कराता है या ये कहें कि पसाहिन के माध्यम से कन्या को गृहस्थाश्रम के लिए तैयार किया जाता है ।
कुँवारी कन्या का पसाहिन


विवाहिता स्त्री का पसाहिन

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