पाग - मिथिला का अधिकृत पगड़ी
पाग - मिथिला समाज की प्रतिष्ठा
भारत के अन्य हिस्सों के साथ मिथिला में भी लोक व्यवहार में 'सिरपट' से सर को ढ़कने की परंपरा स्त्री और पुरुष दोनों में सामान्य रूप से देखने को मिलती है । प्राचीन समय में सिरपट को 'उष्णीष' कहा जाता था अर्थात् जो उष्ण धूप से बचाव करे । जब हम व्यवहार में मिथिला में पुरुषों के वस्त्र विन्यास पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि मिथिला में पुरुषों द्वारा तीन टूक (तीन टुकड़ा) कपड़ा धारण करने की परंपरा रही है। प्रथम, प्राग वस्त्र (पाग), द्वितीय, उत्तरवस्त्र या उत्तरीय (उतरी, दोपटा, चादर, तौनी) और तृतीय, अधोवस्त्र (धोती)।
प्राग वस्त्र के तहत पाग के रूप में साठा पाग का चलन था । इस पाग को सिर पर लपेटने से पहले उसे दोनों घुटनों के सहारे एक विशिष्ट आकर में बांधा जाता था और बड़े आराम से आहिस्ते से सर पर धारण किया जाता था । क्योंकि इस पाग का बार-खुल जाने का डर रहता था । मिथिला में पाग का उल्लेख 13वीं-14वीं शतब्दी में ज्योतिरेश्वर ठाकुर लिखित वर्णरत्नाकर में भी मिलता है । तब विद्यावन्त के वस्त्र विन्यास में ज्योतिरेश्वर ठाकुर पाग की चर्चा करते हैं । यह मिथिला में पाग के व्यवहार का यह प्राचीनतम लिखित साक्ष्य है ।
घुटने पर इस पाग को बनाने में एक बीत चौरा ( लगभग आठ इंच) और साठ हाथ (नब्बे फुट) लंबा मलमल या सूती कपड़े का प्रयोग होता था । जिस कारण इसे साठा पाग कहा गया । इस पाग को मिथिला के सभी वर्गों के पुरुषों द्वारा धारण किया जाता था । धौत परीक्षा या शास्त्रार्थ में विजित ब्राह्मण को सम्मान स्वरूप इस साठा पाग को पहनाने की भी परंपरा मिथिला में थी । यह पाग दो तरह से प्रयोग में आता था । प्रथम व्यवहारिक और दूसरा अलंकारिक । व्यवहारिक पाग सामान्य जनों द्वारा व्यवहार में लाया जाता था तो अलंकारिक पाग विवाह के वक़्त धारण किया जाने वाला मौर (मउड़) और दरबार मे राजा-महाराजा जो पहनते थे वो मुकुट (ताज) कहलाता था । पर दोनों साठा पाग का के रूप में ही बांधे हुवे होते थे अंतर मात्र अलंकारिक रूप में सजाने भर तक का था ।
इस साठा पाग को बांधने की क्लिष्ट तकनीक और कपड़े की लंबाई के कारण बांधने में जो असुविधा होती थी उसे देखते हुवे विकल्प के तौर पर सामान्य जनों के द्वारा इस लंबाई से कम कपड़े का प्रयोग कर पाग की तरह ही बांध कर सरल और अपेक्षाकृत छोटे रूप में प्रयोग में लाये जाने लगा जो कालांतर में मुरेठा कहा जाने लगा । लेकिन फिर भी सभी वर्गों एवं जातियों ने इसे सहर्ष रूप में नही अपनाया बल्कि साठा पाग को ही विशिष्ट रूप में प्राथमिकता दी । पर जैसे-जैसे सभी जातियों में सांस्कृतिक चेतना और संस्कार का हास्य हुवा तो साठा पाग का व्यवहार कम होने लगा पर सभी जातियों के सम्मानित व्यक्तियों द्वारा इसे तब भी धारण किया जाता रहा । बाद में जा कर यह मिथिला के अन्य जातियों से इतर मुख्यतः ब्राह्मणों और कायस्थों के प्रयोग तक जा कर सीमित रह गया । इसी को आधार बना आगे इस तरह राजनीतिक रूप दिया गया कि पाग केवल ब्राह्मणों और कायस्थों के द्वारा ही व्यवहारित वस्तु थी और है । जबकि वास्तविकता ठीक इसके इतर है पाग तो मिथिला के सभी जाति वर्ग द्वारा व्यवहारित थी कालांतर में जैसे-जैसे अन्य जाति सामाजिक चेतना एवं संस्कार से दूर हुवे उन्होंने पाग धारण करना स्वयं छोड़ पाग का सहज एवं सरल रूप मुरेठा धारण करना शुरू कर दिया । आगे जा कर इस साठा पाग को बांधने की तकनीक को जानने वाले लोगों का अभाव होता गया साथ ही अपनी लंबाई के कारण यह असुविधाजनक तो था ही अतः साठा पाग के आकार प्रकार में भी समय के साथ परिवर्तन होना लाजमी हो गया ।
प्राग वस्त्र के तहत पाग के रूप में साठा पाग का चलन था । इस पाग को सिर पर लपेटने से पहले उसे दोनों घुटनों के सहारे एक विशिष्ट आकर में बांधा जाता था और बड़े आराम से आहिस्ते से सर पर धारण किया जाता था । क्योंकि इस पाग का बार-खुल जाने का डर रहता था । मिथिला में पाग का उल्लेख 13वीं-14वीं शतब्दी में ज्योतिरेश्वर ठाकुर लिखित वर्णरत्नाकर में भी मिलता है । तब विद्यावन्त के वस्त्र विन्यास में ज्योतिरेश्वर ठाकुर पाग की चर्चा करते हैं । यह मिथिला में पाग के व्यवहार का यह प्राचीनतम लिखित साक्ष्य है ।
घुटने पर इस पाग को बनाने में एक बीत चौरा ( लगभग आठ इंच) और साठ हाथ (नब्बे फुट) लंबा मलमल या सूती कपड़े का प्रयोग होता था । जिस कारण इसे साठा पाग कहा गया । इस पाग को मिथिला के सभी वर्गों के पुरुषों द्वारा धारण किया जाता था । धौत परीक्षा या शास्त्रार्थ में विजित ब्राह्मण को सम्मान स्वरूप इस साठा पाग को पहनाने की भी परंपरा मिथिला में थी । यह पाग दो तरह से प्रयोग में आता था । प्रथम व्यवहारिक और दूसरा अलंकारिक । व्यवहारिक पाग सामान्य जनों द्वारा व्यवहार में लाया जाता था तो अलंकारिक पाग विवाह के वक़्त धारण किया जाने वाला मौर (मउड़) और दरबार मे राजा-महाराजा जो पहनते थे वो मुकुट (ताज) कहलाता था । पर दोनों साठा पाग का के रूप में ही बांधे हुवे होते थे अंतर मात्र अलंकारिक रूप में सजाने भर तक का था ।
इस साठा पाग को बांधने की क्लिष्ट तकनीक और कपड़े की लंबाई के कारण बांधने में जो असुविधा होती थी उसे देखते हुवे विकल्प के तौर पर सामान्य जनों के द्वारा इस लंबाई से कम कपड़े का प्रयोग कर पाग की तरह ही बांध कर सरल और अपेक्षाकृत छोटे रूप में प्रयोग में लाये जाने लगा जो कालांतर में मुरेठा कहा जाने लगा । लेकिन फिर भी सभी वर्गों एवं जातियों ने इसे सहर्ष रूप में नही अपनाया बल्कि साठा पाग को ही विशिष्ट रूप में प्राथमिकता दी । पर जैसे-जैसे सभी जातियों में सांस्कृतिक चेतना और संस्कार का हास्य हुवा तो साठा पाग का व्यवहार कम होने लगा पर सभी जातियों के सम्मानित व्यक्तियों द्वारा इसे तब भी धारण किया जाता रहा । बाद में जा कर यह मिथिला के अन्य जातियों से इतर मुख्यतः ब्राह्मणों और कायस्थों के प्रयोग तक जा कर सीमित रह गया । इसी को आधार बना आगे इस तरह राजनीतिक रूप दिया गया कि पाग केवल ब्राह्मणों और कायस्थों के द्वारा ही व्यवहारित वस्तु थी और है । जबकि वास्तविकता ठीक इसके इतर है पाग तो मिथिला के सभी जाति वर्ग द्वारा व्यवहारित थी कालांतर में जैसे-जैसे अन्य जाति सामाजिक चेतना एवं संस्कार से दूर हुवे उन्होंने पाग धारण करना स्वयं छोड़ पाग का सहज एवं सरल रूप मुरेठा धारण करना शुरू कर दिया । आगे जा कर इस साठा पाग को बांधने की तकनीक को जानने वाले लोगों का अभाव होता गया साथ ही अपनी लंबाई के कारण यह असुविधाजनक तो था ही अतः साठा पाग के आकार प्रकार में भी समय के साथ परिवर्तन होना लाजमी हो गया ।
मिथिला में पाग के आकार-प्रकार में समय के साथ होने वाले परिवर्तन को आसानी से समझने के लिए हम दरभंगा राज के राजाओं के कलनखण्ड का प्रयोग करेंगे तो आसानी होगी। वैसे भी पाग जैसे प्रतिष्ठात्मक वस्तु जो सम्पूर्ण मिथिला समाज में व्यवहार में लाया जाता था उसके किसी नए रूप को प्रचलन में लाना और पुराने को प्रचलन से हटाना सामान्य जनों के अधिकार क्षेत्र में नही होगा ऐसा हम मान सकते हैं । दरभंगा महाराज रुद्रसिंह (1838-49 ई.) तक साठा पाग का प्रचलन मिथिला में रहा है इसका प्रमाण संग्रहालय के साथ अन्य जगहों पर की तस्वीर और मूर्तियों में देखने को मिलती है ।पर इनके बाद इनके बेटे महेश्वरसिंह (1849-60 ई.) के माथे पर पहली बार बंधुवा पाग देखने को मिलता है जिसे बार-बार घुटने पर बांधने की जरूरत नही होती थी यह स्थायी रूप में बंधा रहता था पर यह अत्यधिक भारी होता था । लेकिन उसके बावजूद भी ये रमेश्वर सिंह (1898-29 ई.) के काल तक प्रचलन में रहा । इसके बाद कामेश्वर सिंह (1929-62 ई.) जब राजा बने तो इनके समय पाग के स्वरूप में एक बार फिर से परिवर्तन हुआ और यही परिवर्तित पाग वर्तमान तक मिथिला में प्रचलन में है । जो कोढिला (जलीय वनस्पति) से बना होने साथ ही कम कपड़े के प्रयोग के कारण काफी हल्का तो होता था पर इसके स्वरूप में इतना अधिक परिवर्तन हुआ कि ये माथे की टोपी की तरह देखने मे लगता था । पाग के आधुनिक स्वरूप के निर्माण में सनातन धर्म के कुछ सिद्धान्तों का भी ध्यान रखा गया । जैसे कि पाग के आगे वाला चौरा हिस्सा जो ललाट को ढकता है वहाँ धारीदार तीन लाईन त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) का द्योतक होता है तथा इस धारीदार लाइन के नीचे जो करीब दो-ढाई इंच लंबा गांठ होता है उसका संबंध आज्ञा चक्र को संयमित करने से है । पाग के ऊपरी हिस्से में जो कपड़े को समेट एकत्र कर कलगी के नीचे आगे वाले हिस्से में जोड़ा रहता है उसका संबंध मस्तिष्क की ऊर्जा को केंद्रीकृत करने से है और कलगी पराक्रम (पौरुषत्व) का प्रतीक है । इसके साथ चारो तरफ का पट्टी पाग के साथ-साथ शरीर को संतुलित रखने के उद्देश्य से इस तरह दिया गया होता है कि अगर आप थोड़ा भी हिले तो पाग आपके सर से नीचे गिर जाएगा और मिथिला में पाग का गिरना मतलब आपकी प्रतिष्ठा का गिरना माना गया है। अतः ये कह सकते हैं कि पाग का आकार-प्रकार ही ऐसा बनाया गया कि इसे हर कोई धारण ना कर सके बल्कि जो मानसिक एवं शाररिक रूप से स्थिर हो वो ही इसके योग्य है । इस तरह मिथिला में पाग धारण को प्रतिष्ठा और मान सम्मान से जोड़ कर देखा गया है ।
वर्तमान पाग मुख्यतः कोकटी रंग( कपास की एक प्रजाति जिससे तैयार धागे का रंग ही स्याह सफेद (ऑफ व्हाईट लिए होता था, जिस कारण इससे तैयार कपड़े को रंगने की आवश्यकता नही होती थी ), लाल रंग और उजला रंग का होता है । कोढिला (एक जलीय वनस्पति) को आधार बना उसपर कपड़े को चढ़ा कर बनता है । वर्तमान में कोढिला कई अनुपलब्धता के कारण अन्यान वैकल्पिक वस्तुओं का प्रयोग कोढिला के बदले होने लगा है । रंगों के आधार पर ही संस्कार कर्म करते वक़्त पाग धारक निर्धारित रंग वाला पाग को धारण करेगा यह मिथिला की परंपरा रही है । जनेऊ में बरुवा लाल रंग का पाग धारण करेगा, विवाह में वर घुनेश (अलंकारिक प्रसाधन) से सजा लाल पाग धारण करेगा, कोकटी रंग का पाग बड़े बुजुर्गों के लिए निर्धारित है तो सफेद रंग का पाग विद्वानों द्वारा धारण करना लोक व्यवहार में सुनिश्चित है । कालांतर में कोकटी कपास की उपज मिथिला से खत्म हो जाने के कारण बुजुर्ग और विद्वानों दोनों के द्वारा ही सफेद रंग का पाग धारण किया । इस तरह हम देखते हैं कि मिथिला संस्कार कर्मों में पाग धारण करने का नियम है । परंतु कुछ लोक संस्कारो में वर्तमान स्वरूप वाला बाजारू रेडीमेड पाग धारण करना आज भी वर्जित है । जैसे द्वादशा कर्म संपन्न करने के पश्चात कर्ता और पाचक का जब घाट (कर्म स्थली) से वापस आते हैं तो मृतक के आंगन में कर्ता और पाचक का चुमान ( बुजुर्गों द्वारा आशीर्वाद देना ) होता तो उस समय बाजारू पाग का प्रयोग नही होता बल्कि यहाँ साठा पाग के प्रतीक रूप में कपड़े को सर में बांधा जाता है क्योंकि इस दिन परिवार के नए मुखिया का चुनाव समाज के समक्ष समाज के बड़े बुजुर्गों द्वारा पारिवारिक उत्तरदायित्व रूपी आशीर्वाद देकर किया जाता है ।
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