लोकनायक का नायकत्व
किसी भी भाषा का साहित्य हो उसका आधार स्थानीय लोक संस्कृति ही होता है । पर बात जब मैथिली साहित्य की हो तो ये कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि जिस मैथिली शिष्ट साहित्य का ध्वज विभिन्न मंचो से वर्षों से हम मैथिल ढोते आ रहें हैं उसका तो उद्गम ही लोक संस्कृति से है । क्योंकि ज्योतिरीश्वर ठाकुर लिखित वर्णरत्नाकर ( 13वीं-14वीं शताब्दी- मैथिली साहित्य का पुरातन प्रमाण ) में लोरिकायन, विरहा, लगनी जैसे खांटी लोक की विषयवस्तु का उल्लेख मिलता है । ये एक अलग बात है कि लोक साहित्य को प्रॉपर साहित्यिक दर्जा मैथिली शिष्ट साहित्यकारों द्वारा भी तब दिया गया जब डॉ. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा मिथिला परिक्षेत्र में प्रचलित लोक गाथाओं में से सलहेस गीत, दीनाभद्री गीत और नेबार गीत को लिपिबद्ध किया गया । इसमे से गीत सलहेस 1881 ई. में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल के मैथिली अंक मैथिली क्रिस्टोमैथी में तथा शेष दो गीत दीनाभद्री और गीत नेबार जर्मनी के जर्नल में प्रकाशित हुवा । उसके बाद 1951 ई. इंट्रोडक्शन ऑफ द फोक लिटरेचर ऑफ मिथिला- जयकांत मिश्र, 1962 ई. मैथिली लोक महाकाव्य- डॉ. पूर्णानंद दास, 1963 ई. मैथिली लोक गीतों का अध्ययन- डॉ. तेज नारायण लाल, 1973 ई. पूर्वांचल लोक साहित्य- चेतना समिति, पटना, 1974 ई. लोकगाथा विवेचन- पं. राजेश्वर झा जैसे विद्वानों ने मिथिला के लोक जीवन के विषय वस्तुओं को केंद्र में रख साहित्यिक रचना की परंपरा को आगे बढ़ाया । इसी तरह डॉ. ब्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म' ने मिथिला में प्रचलित लोक गाथाओं को आधार बना राजा सलहेस (1968ई.), लोरिक विजय (1970ई.), नैका बनिजारा (1972ई.), लवहरि-कुशहरि (1976ई.), राय रणपाल (1978ई.) जैसे उपन्यास को लिख इन गाथाओं को पढ़े लिखे शिष्ट जनों तक पहुँचा मौखिक लोक जगत के साथ इन सबका साक्षत्कार करवाया । आगे जा के अकादमिक गतिविधियों में भी लोकगाथाओं के ऊपर शोधकार्य सम्पन्न किये जाने लगे । डॉ रामदेव झा, महेंद्र नारायण राम, शिव प्रसाद यादव जैसों ने अपना शोध ना केवल ( ललित नारायण मिथिला विश्विद्यालय ) लोक गाथाओं पर किया अपितु आगे के शोधकर्ताओं के लिए ये एक आधार पुरुष बने जिस कारण शोध कर्म वर्तमान तक चल रहा है ।
लोककण्ठ में व्याप्त इन लोकगाथाओं से हमें मिथिला के द्विजेतर समाज का रहन-सहन, आहार-व्यवहार, आचार-विचार आदि को समझने में आसानी होती है । अपने मौखिक स्वरूप के कारण इसकी अक्षुण्ता को बाहरी मुस्लिम आक्रमणों से ज्यादा नुकसान नही पहुंचा है । हाँ ये एक अलग बात है कि इससे ये भी थोड़ी बहुत प्रभावित हुई ।
मिथिला के द्विजेतर जातियों में से जनाधिक्य जातियों ( दुसाध, डोम, मुसहर आदि )के कुल देवता इन्हीं जाती विशेष के लोक नायकों में से हैं जबकि अन्य द्विजेतर जातियों में अधिकांश के कुल देवता धर्मराज हैं । जिनके कुल देवता अलग अलग है उनमें से दुसाध (पासवान) के सलहेस, डोम के छेछन महाराज, हलुवाई के गणिनाथ, यादव के धर्मराज, मुसहर के दीनाभद्री प्रमुख हैं । मिथिला क्षेत्र में प्रचलित कई सारे लोक देवताओं में कुछ की गाथाएं ( सल्हेस, दीनाभद्री, लोरिक की लोक गाथा ) तो इतनी अधिक प्रसिद्धि पाई की इनका प्रसार मिथिला के अतिरिक्त अन्य क्षेत्र में भी हुवा । इनमें सलहेस लोकगाथा का क्षेत्रीय प्रसार सर्वाधिक हुवा है । ऐसा शायद इसलिये हो पाया कि सलहेस गाथा में जन सामान्य को रुचिकर लगने वाले तत्व जैसे जादू टोना, अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष, देश प्रेम, नायक-नायिका प्रेम सम्बन्ध, नायक का शौर्य-पराक्रम जैसे वो सभी तत्व हैं जो लोगों को गाथा से जोड़ता है । सल्हेस द्विजेतर जाति में मनुष्य रूप में जन्म लेता है पर जल्द अपने अतिसय पराक्रम, बाहुबल, बुद्धिबल, अलौकिक शक्ति के बदौलत लोक नायक से लोक देवता बन पूजनीय हो जाता है । नीचे के सुमिरन/गोहारि गीत को पढ़ आसानी से समझा जा सकता है कि किस प्रकार लोक नायक सलहेस और लोक देवता एक साथ जुड़े हुवे हैं -
सुमिरन सुमिरन सुमिरन करै छी...
अइनि गुण कन्हि हे दुर्गा, डाइनि गुण बन्हिहे .....
तोहरे दुअरिया हो राजा जी ठाढ़ छै गुहरिया,
दरसन के लिलसा लेने ठाढ़ ।
डेंचका महलिया हो राजा जी
नीचहि हवेलिया जिंजर भरल केवाड़,
गौर परै छी हो राजा जी, गोहार करै छी,
विनती नय सुनइ हमार,
सोना नय मंगई छीअ राजा जी,V चानी ने मांगी,
एगो तोहरे सरण आधार ।
तोहरे भरोसे हो राजा जी पुजा ठनलियै,
भगतन पर होओ न सहाय ।
उपरोक्त पंक्ति में राजा जी सलहेस का गोहारि (विनती) भगत द्वारा देव रूप में में किया जाता है । जो बताता है कि सलहेस आराध्य के रूप में अपने भक्त के कई कष्टों का निवारण करने वाले लोक देवता है ।
वहीं राजा सलहेस जब कुसमा का प्रेमी नायक बनता है तो कुसमा अपने प्रेमी के मिलन के लिए क्या क्या यतन कि उसने अपने मन के उद्गार को निम्न पंक्ति द्वारा व्यक्त किया है जो बड़ा ही रोचक है -
गय चनन काटि क पौवा बनौलियै
सड़ड़ काटि पासि क देलियै
कांचे धागा सँ पलंगिया घोरौलियै
गय फूले ओछौना फूले बिछौना
फूले के सिरहौना देलियै
गुआ चानन आंगन बड़ छिटलौ
मेदनी फूल हम गांजा लटौलियै
सोना चिलम रूपा ठेकारिया
आँचर फाड़ी हम पलीता बनौलियै
मँह-मँह, मँह-मँह, मँह-मँह करै पलंगिया
सोनाक थाड़ सिरमा हम देलियै
रुपाक थाड़ गोरथारी में देलियै
पान खाइत पनबट्टा जोगौलियै
बंगला पान स्वामी ले देलीयै
तईयो ने निर्देइया दरसन देलकै यौ
तईयो ने बेमनवा दरसन देलकै यौ
इतने जतन के बाद भी जब कुसमा का प्रेमी सलहेस उससे मिलने नही आता है तो गुस्से में कुसमा अपने जादूई शक्ति से उसे तोता बना देने की बात करती है-
जादू मारि हम सुग्गा बनेबै
ल पिंजरा हम मोरंग जेबै
आब युग युग हम राज गे बहिना
मोरंग में भोगबै गै
युग युग राज हम बहिना
मोरंग में भोगबै गै ।
पर ये उसका प्रेम ही है जो कुसमा के गुस्से को ज्यादा देर टिकने नही देता खत्म कर देता है और प्रेयसी कुसमा सलहेस के विरह में डूब जाती है और उदास हो करुण भाव से कहती है ।
गे बड़ बड़ भगति मोरंग मे केलियै
शनि-रवि हरिबासलो केलियै
नित जल तुलसी सेहो ढारलियै
शनि-रवि अठबारे केलियै
आठो महीना गंगा नहेलियै
गंगा मे एकटंगा देलियै
पूरब राज पुरनियाँ गेलियै
जाड़ी माटि कोशिका मे देलियै
कोसिका माय के साखी रखलियै
हाथी चढ़ी क गौड़ पूजलियै
दीना नाथ के सुमरन केलियै
स्वामि अओतै पलंग पर बैसितै
ओ सभ सारि स्वामि संग खेलबै
आब मन के ममोलबा गै बहिना
आ मोरंगे मे बीता लेबै गै
तैयो ने बेइमनमा दुसधवा दरसन देलकै यौ
तैयो ने बेइमनमा दरसन देलकै यौ ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दुसाध जाति में जन्मा एक साधारण सलहेस किस प्रकार एक साथ लोक देवता और प्रेमी दोनों रूप में आम जन के समक्ष उपस्थित होता है और लोक को अपने से जोड़ता है । सल्हेस का बाहुबल, बुद्धि बल और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का गुण उसे मैथिल समाज के उस वर्ग का नायक बना देता है जो खुद पीड़ित ओर शोषित तबके से आता है । ऐसे में सलहेस के रूप में उसे अपना नायक दिखता है जो हर तरीके से उसके दुःख दर्द को कम कर सकता है ऐसा विश्वास सलहेस के प्रति बनता है । ये सब चीजें सलहेस को लोक नायक के तौर पर उस समाज मे स्थापित कर देता है । इसी नायकत्व के गुण में जब लौकिक दैवीय शक्ति का समावेश होता है तो उनका लोक नायक सलहेस लोक देवता बन जाता है ।
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