झिझिया : लोकनृत्य या जादू-टोना
झिझिया और जोग-टोन
झिझिया बिहार का पारंपरिक तंत्र-मंत्र पूरित अनुष्ठानिक गीतात्मक लोक नृत्य है । यह नृत्य शारदीय नवरात्र के दसों दिन प्रथम दिन से आरंभ होता है और अंतिम दिन की रात्रि तक गांव-घर की महिलाओं और कुँवारी कन्याओं के द्वारा सम्पूर्ण बिहार यहां तक कि नेपाल के मधेश क्षेत्र में भी की जाती है । समाज में डायन-जोगिन (योगिन) से जुड़ी शक्तियों के प्रति यह धारणा है कि ऐसी बुरी शक्तियों से स्त्रियां अपने परिवार (खास कर मायका पक्ष) की रक्षा इस अनुष्ठानिक लोक नृत्य के माध्यम से करती है । समाज मे बड़े-बुजर्गों के मुहँ से हमने ये बात जरूर सुनी होगी की शारदीय नवरात्र के अष्टमी तिथि की मध्य रात्रि के दौरान ही डायनों को अपनी जोग-टोन (जादू-टोना) में सिद्धि प्राप्त होती है । जिसके परीक्षण हेतू वो गर्भवती स्त्रियों के गर्भ पर या नवजात शिशु पर या फिर नौजवान बेटे पर अपने मारक शक्ति का प्रयोग करती है । इसलिए हम आप आज भी देखते है कि हमारे घरों की बुजुर्ग महिलाओं द्वारा शारदीय नवरात्र के समय नवजात बच्चों को काला कपड़े में लहसुन की कलियाँ, हींग, राई जैसी चींजों को लपेट उसे काले धागे में बांध गले मे बाँधा जाता है । ताकि बच्चों को बुरी नजरों से बचाया जा सके । मतलब साफ है कि जन सामान्य में व्याप्त इस इस तरह की धारणाओं से बचाव के लिए झिझिया नृत्य लोक व्यवहार में शामिल है । एक कथा के अनुसार इस अष्टमी की रात्रि में डायन अपने जोग-टोन से मृत मिट्टी में गड़े बच्चा को मिट्टी से निकाल उसे अपनी तंत्र शक्ति से फिर से जिंदा करती हैं तथा बच्चे का श्रृंगार कर उसे अपने साड़ी पर सुला खुद नग्न रूप में नाचती हुई दूर निकल जाती है । अगर इस दौरान कोई व्यक्ति बच्चा को देख उसको लेकर गांव की ओर भागता है तो फिर डायन उसका पीछा करती हुई उसे घूर ताक-घूर ताक ( बार-बार वापस पीछे देखने को कहना) कहते खदेड़ती है । अगर वह व्यक्ति बिना वापस पीछे देखे भागते हुवे गाँव की सीमा में प्रवेश कर जाता है तो फिर बच्चा अपनी पूरी आयु जीता है । नही अगर भागने वाला पीछे मुड़ देखता है तो वे दोनों वहीं मर जाते हैं । कहने का मतलब इस तरह की जितनी भी कहानियाँ हैं वो भले ही अंधविश्वास हो पर उसने जन सामान्य के दिलों में इतनी मजबूती से घर गया कि इन लोगों ने ना केवल इसे सच माना बल्कि इससे बचने के उपाय तक को अपने लोक व्यवहारों में जगह दे दी । झिझिया नृत्य इसी का एक उदाहरण है । जिसके माध्यम से एक स्त्री बहन-बेटी बन अपने परिवार की मंगल के लिए झिझिया नृत्य कर गाती है ---
सबके दुअरिया झिझिया झकमक करई
भैया के दुअरिया अन्हार कुप हो ना
बहिनी जे रहथिन्ह झिझिया खेलेथिन्ह
खेल औथिन्ह बाबा के दुअरिया हो ना......
अब झिझिया गीत में मायके पक्ष की मंगलकामना ही क्यों दृष्टिगत होती है तो दरसल कारण ये है की आज भी शारदीय नवरात्र में दुर्गा पूजा मेला देखने के दौरान जितनी भी विवाहिता नव यौवना होती है उनमें से अधिकांश को उनके मायके से बुलावा (बिदागरी) आता है और इसी शारदीय नवरात्र के दौरान ये सभी अपनी बहन, सखी-सहेलियों के साथ झिझिया नृत्य करती है । भले ही लड़कियाँ विवाहित हो जाय पर अपने मायके के प्रति अनुराग उनका कभी कम नही होता । अपने इसी अनुराग को वो मायके में इस नृत्य के लोक गीतों के माध्यम से प्रकट करती है ।
झिझिया लोक नृत्य का प्रसार क्षेत्र अधिक होने के कारण कई क्षेत्रों में इस लोक नृत्य से संबंधित कई प्रकार की लोक कथाओं का प्रमाण मिलता है । जिसको आधार मान ये कहा जा सकता है कि अमुक समय से अमुक क्षेत्र में झिझिया नृत्य और गीत की परंपरा चली आ रही है । एक ऐसी ही कथा है कि मिथिला के राजा चित्रसेन जो खुद निःसंतान थे अपने भांजा बालरूचि से बहुत अधिक स्नेह करते थे और उसे ही उन्होंने अपना युवराज घोषित किया हुआ था । राजा से कम उम्र की रूपवती पत्नी जो जादू टोने में प्रवीण थी उसका दिल बालरूचि के प्यार में पागल था । एक बार रानी ने अपना प्रणय निवेदन बालरूचि के समझ रखा पर बालरूचि ने इस निवेदन को सिरे से खारिज कर रानी को बहुत खड़ी-खोटी सुनाई । अपमानित रानी ने बालरूचि से प्रतिषोध लेने के उद्देश्य से अपने जादू से बहुत कुरूप और गंभीर रूप से बीमार होने का अभिनय राजा के समक्ष किया । घबराया राजा ने रानी का बहुत ईलाज करवाया पर रानी ने बीमारी का अभिनय बन्द नही किया । अंत में उसने राजा को अपनी बीमारी से बचने के उपाय के रूप में यह कहा कि अगर वो बालरूचि के रक्त से सने हृदय पर बैठ स्नान करेगी तो पुनः स्वस्थ और सुंदर हो जाएगी । राजा के लाख मनाही के वावजूद रानी नही मानी । अंततः राजा ने बालरूचि को मारने का आदेश दिया पर युवराज के खास सैनिकों ने युवराज को कैद कर उन्हें जंगल में ले जा कर कैद मुक्त कर गीदर के खून सने दिल को लाकर राजा को दे दिया । इसे देख रानी प्रसन्न हो अपने अभिनय को बंद कर फिर से सुंदर रूप में आ गई ।
इधर बालरूचि कैद से मुक्त हो जंगल मे भूख प्यास से बेहाल भटकते हुवे एक जादूगरनी बुढ़िया के पास पहुँचा । बूढ़ी जादूगरनी को उस पर दया आ गई । इस तरह बालरूचि और बूढ़ी जादूगरनी दोनों जंगल मे ही साथ-साथ रहने लगे । बहुत सालों के एक बार राजा और रानी की सवारी उस जंगल से गुजरी । जिस दौरान उसके डोली के एक कहार की मृत्यु हो गयी । अब जंगल मे कौन राजा की डोली को उठाये ये एक समस्या आ गयी । ऐसे में जब खोजबीन हुई तो बालरूचि जंगल मे मिला उसने राजा का कहार बनना स्वीकार कर लिया । रास्ते मे राजा एक गीत गा रहा था जो वो बचपन मे बालरूचि को सुनाया करता था । अचानक राजा गीत की पंक्ति को भूल गया । बार-बार दोहराने पर भी राजा गीत की पंक्ति को पूरा नही कर पा रहा था ऐसे में कहार बना बालरूचि ने उस पंक्ति को जिसे राजा भूल गया था गा कर पूरा किया । राजा के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा । उसने कहार को अपना वास्तविक परिचय देने को जब मजबूर किया तो बालरूचि ने अपना असली परिचय दिया । राजा ने बालरूचि को गले से लगा लिया । रानी ने जब ये देखा तो उसे अपने किये पर बहुत शर्मिंदा होना पड़ा । रानी ने बालरूचि से माफी माँगी और संग चलने को कहा । बालरूचि तैयार हो गया पर ये बात बूढ़ी जादूगरनी को बिल्कुल ही पसंद नही आई । उसने वालरुचि पर अपने जादू-टोना का प्रहार कर दिया, जिससे बालरूचि मूर्छित हो गया । यह देख रानी जो खुद जादू-टोना में सिद्धस्त थी उसने जादूगरनी के जादू को काटना शुरू किया । इस तरह रानी और जादूगरनी में भयानक मायावी शक्तियों की लड़ाई शुरू हो गयी । अंत मे इस लड़ाई में जादूगरनी परास्त हुई और राजा-रानी बालरुचि के साथ राजधानी अपने महल को लौट आये और दोनों ने बालरुचि को राजगद्दी पर बैठा राजा घोषित कर दिया । साथ ही बालरूचि कि लंबी उम्र की कामना और डायनों के जोग-टोन से रक्षा के उद्देश्य से प्रतिवर्ष झिझिया तांत्रिक अनुष्ठान का आयोजन करने लगी । जिसे बाद में समाज के सभी वर्गों ने अपना लिया । इस तरह झिझिया जनसामान्य के लोक व्यवहार में शामिल हो गया ।
झिझिया नृत्य में जो छिद्रयुक्त घड़े का प्रयोग होता है जिसके अंदर दुर्गा माँ के आशीर्वाद का प्रतीक स्वरूप दीपक को जलाया जाता है । नाचने के क्रम में इस बात का ख्याल रखा जाता है कि दीपक ना बुझे और ना ही घड़ा नीचे गिर कर टूटे । घड़े का टूटना और दीपक का बुझना दोनों ही अपशकुन माना जाता है । साथ ही घड़े को माथे पर रख तेज गति से नाचा जाता है ताकि घड़े के छिद्र का गिनती ना किया जा सके ।
झिझिया की शुरुआत सबसे पहले ग्राम देवता ब्रह्म बाबा के स्थान से होता है । उनके आशीर्वाद के बाद झिझिया करने वाली गांव की गलियों में पूरी रात घूम-घूम के गीत गाती हुई नाचती है । गीतों में सबसे पहले ब्रह्म बाबा को गोहार लगाती हुई कहती है-
तोहरे भरोसे ब्रहम बाबा झिझिया बनइलिअइ हो
ब्रहम बाबा झिझिया बनइलिअइ हो.....
ब्रहम बाबा झिझरी पर होईअऊ न असवार
अबोधवा तोहर किछियो न जानय छौ हो.....
ब्रहम बाबा झिझरी पर होईअऊ न असवार
तोहरे अंगनमा ब्रहम बाबा जुड़वा बनइलिअइ हो
ब्रहम बाबा जुड़वा बनइलिअइ हो.....
ब्रहम बाबा जुड़वा पर होईअऊ न असवार
अबोधवा तोहर किछियो न जानय छौ हो....
ब्रह्मबाबा के गोहार ( विनती) के बाद देवी गीत गाती हुवे कहती है-
देवी मोरे अयलिन निहुरि पईयाँ लागू
की देखे अयलिन मैया की देख मुसकईलिन
दुधवा देखे अयलिन मैया पूत देख मुसकईलिन
देवी मोरे अयलिन निहुरि पईयां लागू .......
इस तरह महिलाएं ब्रह्म बाबा और देवी का आशीर्वाद ले आगे बढ़ती हैं और खुद को डायन से ज्यादा शक्तिशाली समझ गीतों के माध्यम से डायन को ललकारती हुवे कहती हैं-
चल चल गे डयनियाँ ब्रहम तर
तोरा बेटा के खेबउ ब्रहम तर ....
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