सुई-धागा की रंगीन दुनियाँ : सुजनी

रत्नगर्भा मिथिला की उर्वर भूमि पर आपको रंग-बिरंगी लोक कला एवं हस्तशिल्पों का एक से बढ़कर एक उदाहरण देखने को मिलेंगे । मिथिला पेंटिंग हो या फिर सिक्की क्राफ्ट हो सबने अंतराष्ट्रीय कला जगत को अपनी खूबियों से आकर्षित किया है । पर मिथिला पेंटिंग की चकाचौंध से हम इतने ना सम्मोहित हो गए कि हमने अपने आसपास से विलुप्त हो रही अन्य शिल्प विधाओं पर ध्यान ही नही दिया । इसी का परिणाम है कि सुजनी शिल्प जो हमारे हस्तशिल्पों के गलमाल में गुथा एक बेजोड़ नगीना था अपने क्षेत्र से विलुप्त हो मुजफ्फरपुर जिला के भूषरा गांव का कंठहार बन चुका है । ये सोचने वाली बात है कि जिस सुजनी कला को मिथिला के शिल्पियों ने विश्व पटल पर ना केवल प्रसिद्धि बल्कि स्थापित भी किया और तो और एक से बढ़ कर एक शिल्पकारों ने सुजनी हस्तशिल्प का राष्ट्रीय पुरस्कार तक बिहार की झोली में लाया उस मिथिला से आज ये शिल्प विलुप्त होने के कगार पर है और इसका नाम लेने वाला भी उंगलियों पर गिने जाने योग्य बचा है । क्या आप मधुबनी जिले के पंडौल की बेटी रांटी की बहू कर्पूरी देवी को भूल सकते हैं जिन्होंने ना केवल खुद को सुजनी कला के साथ-साथ मिथिला चित्रकला में भी सिद्ध कर लिया था बल्कि आज भी इनकी बनाई मिथिला पेंटिंग और सुजनी अंतराष्ट्रीय अजायबघरों की शोभा बढ़ा रही है । और तो और इन्हें वस्त्र मंत्रालय से नेशनल मेरिट अवार्ड भी सुजनी के कामों के लिए ही मिला था । तो फिर ऐसे में क्या वो कारण रहे होंगे कि जिस सुजनी शिल्प का मुजफ्फरपुर में कोई इतिहास आसानी से नही मिलता है वहाँ का भुसरा गाँव आज सुजनी शिल्प का केंद्र बन चुका है और हम सुजनी शिल्प में कंगाल हो चुके हैं ।आज का हमरा ये पोस्ट इन्हीं सब बातों की जाँच-पड़ताल करते हुवे आपको सुजनी शिल्प की बारीकियों एवं खूबसूरती की यात्रा पर ले जाएगा ।

1875 में पहले के तिरहुत जिले को विभाजित करके प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से मुजफ्फरपुर जिला बनाया गया था। इसका नाम ब्रिटिश राजवंश के तहत एक राजस्व अधिकारी मुजफ्फर खान के नाम पर रखा गया । आज सुजनी कढ़ाई का काम मुख्य रूप से बिहार के इसी मुजफ्फरपुर जिले के भुसुरा नाम के गाँव के साथ-साथ इसके आसपास के 15 गाँवों में किया जाता है । भुसुरा गाँव मिथिला पेंटिंग के केंद्र मधुबनी से 100 किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। इतना करीब हो कर भी इस कला का मिथिला से विलुप्तिकरण आखिर हुवा कैसे ? और हुवा भी तो इसे पुनः स्थापित करने का प्रयास क्यों नही हुवा ये अत्यंत सोचनीय है ।


जब अब 1960-70 के दशक में जाते हैं सुजनी कला के स्थानांतरण के मूल में अदिथी नाम की एक गैर सरकारी संगठन को पाते हैं जिसकी कर्ता-धर्ता बी. जी. श्रीनिवासन नामक एक महिला थी । जी हाँ ठीक पहचाना वही बी. जी. श्रीनिवासन जिन्होंने बिहार में ngo क्या होता है? कैसे ngo के माध्यम से विदेशों से पैसा लाया जाता है ? और कैसे ngo ग्रामीण महिलाओं के बीच काम करता है, इससे बिहार का परिचय इन्होंने ही कराया । मुझे लगता है बिहार में आज के अधिकांश ngo से कोई ना कोई जरूर इन्हीं के मार्गदर्शन में काम करना आरंभ किया होगा । वर्तमान में कम से कम 4 पाँच ngo को तो मैं जानता हूँ जो बी. जी. श्रीनिवासन के सानिध्य में रह कर पल्वित-पुष्पित हुवे । मधुबनी में सेवा मिथिला, ग्राम विकास परिषद जैसे कुछ ngo ने इन्ही के मदद से अपना काम शुरुआती दिनों में किया । वी. जी. श्रीनिवासन बहुत ही दूरदृष्टि वाली महिला थी । उन्होंने शायद भांप लिया कि मिथिला चित्रकला को जो प्रसिद्धि विश्व भर में मिल चुकी है । सुजनी शिल्प इस प्रसिद्धि के बोझ से कहीं मधुबनी में दम ना तोड़ दे । इस चिंता ने वी. जी. श्रीनिवासन को भूषरा के गांवों की महिलाओं को आर्थिक रूप से मजबूती देने के साथ-साथ सुजनी शिल्प को वहाँ पल्वित-पुष्पित करने के लिए प्रेरित किया । आज भी भूषरा में अदिथी ngo द्वारा स्थापित महिलाओं की सहकारी समिति काम कर रहा है । परिणामस्वरूप भुसरा में सुजनी का प्रशिक्षण सह व्यवसायिक उत्पादन केंद्र की शुरुआत की गई । जिसे भूषरा तथा उसके आसपास के गांवों की महिलाओं ने हाथों हाथ लिया और सुजनी कला आज इस गांव की पहचान बन गई । आज तो यह गाँव बिहार सरकार के उद्योग विभाग द्वारा संचालित उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान के प्रयास से विश्व भर मे ख्याति प्राप्त कर रहा है । यहाँ तक कि बिहार सरकार का सुजनी शिल्प का कॉमन फैसिलिटी सेंटर (CFC) भी भूषरा गाँव मे ही है । ऐसे में मुझे एक बात अपने यहाँ के लोगों से कहना चाहूँगा की विकास का मतलब समग्र विकास होता है ना कि किसी एक को पा कर इतना सन्तुष्ट हो जाएं कि बांकी सभी इस चक्कर मे नष्ट हो जाय । सुजनी के साथ कुछ ऐसा ही हुवा । हमलोग मिथिला चित्रकला की प्रसिद्धि में इतना ना खोए की सुजनी हमारे मुट्ठी से कब फिसल गई पता ही नही चला । वो भी सुजनी शिल्प का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शिल्पी कर्पूरी देवी जे जिंदा रहते जिन्होंने अपनी मेहनत से हमें मिथिला चित्रकला के अलावे सुजनी में भी राष्ट्रीय पहचान दिलायी थी । खैर छोड़िए इन बातों को अगर लगे कि सुजनी के लिए फिर से काम किया जा सकता है तो हमलोग फिर से इस मुद्दे पर बात करेंगे । आइये अब थोड़ा सुजनी कढ़ाई के निर्माण से जुड़ी बातों को भी अपनी नई पीढ़ियों से रूबरू करवा दें ।


सुजुनी कढ़ाई श्रमसाध्य कार्य है । जो बंगाल की 'कांथा' कढ़ाई से थोड़ा बहुत मिलता जुलता है । सुजनी निर्माण के लिए परंपरागत रूप में पहले घर के पुराने प्रयोग हुवे कपड़े खास कर साड़ी और धोती के टुकड़े को एक के ऊपर एक रख स्तर तैयार किया जाता फिर उसे सुई और धागे से टांक आपस मे जोड़कर आधार तैयार कर लिया जाता है । तद्पश्चात आधार पर चित्रित किये जाने वाले डिजाइन की रूपरेखा तैयार की जाती है या कपड़े पर इन डिजाइन को सीधे निरूपित कर दिया जाता है । छोटे-छोटे रनिंग टांके से पूरे कपड़े को कवर करते हैं, जो पारंपरिक सफेद या लाल होते हैं फिर मोटी चेन सिलाई से आकृतियों को हाइलाईट किया जाता है । पुनः इस आकृतियों को रंगीन धागों के टांके से भरा जाता है । इन रंगीन धागों का चुनाव बाहर के सफेद या बेस फैब्रिक के मैच करते रंग से किया जाता है ताकि कढ़ाई की आकृतियाँ खूब निखर कर सामने आए । आज व्यवसायिक रूप ज्यादातर सुजुनी का निर्माण क्रीम कलर के मार्कीन वाले कपड़े पर किया जाता है।  कभी-कभी भूरे और काले रंग के कपड़े का भी उपयोग किया जाता है।  साड़ी, कुर्ते और दुपट्टे के लिए रंगीन मलमल या हथकरघा पर बुने कपड़े का भी उपयोग किया जाता है, और कभी-कभी तसर सिल्क का उपयोग स्टोल और जैकेट बनाने में भी किया जाता है। पर जब तक सुजनी का व्यवसायिक प्रयोग सम्भव नही हुवा था और महिलाओं द्वारा घरेलू जरूरतों के पूर्ति मात्र के लिए सुजनी तैयार किया जाता था तो परंपरागत रूप से महिलाओं द्वारा अपने घरों में पुरानी पहनी हुई साड़ियाँ और धोतियों से सुजनी का ना केवल आधार तैयार किया जाता था बल्कि रंगीन धागों की अनुपलब्धता की समस्या का निदान भी उन्होंने अपने लिए प्रयोग में लाई गई साड़ियों के रंगीन कोर या किनारे से खींच कर रंगीन धागे को निकाल कर किया जाता था । साड़ियों के किनारों से खींचे गए निकाले गए विभिन्न रंगों के महीन धागों को ये बड़े जतन से रखती थी ताकि जरूरत अनुसार इसे सुजनी कढ़ाई में प्रयोग किया जा सके । इस तरह से देखा जाय तो ये महिलाएं अपने घरों के वेस्ट फैब्रिक मटीरियल को रिसाइकिल कर पुनः प्रयोग में लाती थी ।

                    कर्पूरी देवी द्वारा निर्मित

सीमित डिजाइनों के प्रदर्शनों के साथ सुजनी, कढ़ाई का एक सरलतम रूप है । यह अपने प्रयोग की आकृतियों के विषय को लोक संस्कृति या फिर ग्रामीण जन जीवन से उठाता है जो सुजनी बनाने वाली महिलाओं के भावनाओं को उजागर करती है।  इन महिलाओं द्वारा ही  लिये गए थीम या मोटिफ को सुई और रंगीन धागों के संयोजन से जीवंत रूप में तैयार किया जाता है । बारीक छोटी-छोटी रंग-बिरंगी   धागों से उकेरी गई आकृतियों के साथ आप लोक संस्कृति के उस अनंत यात्रा पर निकल जाते हैं, जिससे वापस आने पर भी आप बार-बार उस रंगीन धागों की दुनियाँ में खोना चाहेंगे । महिलाएं अपनी घरेलू जिम्मेदारियों के निर्वहन के साथ-साथ इस काल्पनिक रंगीन दुनियाँ को रचती है । जहाँ छोटी वस्तुओं पर सुजनी कढ़ाई ये व्यक्तिगत रूप से करती है । वहीं बड़े-बड़े कपड़ो से निर्मित वस्तुओं जैसे रजाई, बेडशीट या पर्दे के लिए, तीन या चार महिलायें एक साथ समूह में काम करती है । सुजुनी कढ़ाई बेडशीट, वॉल हैंगिंग, और कुशन और फोल्डर कवर के साथ-साथ साड़ी, दुपट्टे, और कुर्ते जैसे कपड़ों के सामान भी जबसे व्यवसायिक स्तर पर काम किया जाने लगा है तब से तैयार की जाती है । वरना परम्परागत रूप में इसका प्रयोग बच्चे के जन्म लेने पर उसके लिए उपयोगी रजाई बनाने के साथ-साथ बेटियों के विवाह के बाद ससुराल विदाई में दिए जाने वाले उपहार (सांठ) का एक जरुरी वस्तु के रूप में होता था । 

                 कर्पूरी देवी द्वारा निर्मित

सुजनी पर कढ़ाई में प्रयुक्त होने वाली मोटिफ के रूप में आमतौर पर धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष कथा प्रसंगों का चित्रण के साथ ही विभिन्न आकार के ज्यामितीय पैटर्न का भी निरूपण किया जाता है । जिसमे पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं एवं ग्राम जीवन के विषय वस्तुओं की प्रमुखता होती थी । परंतु आज सुजनी पर उकेरी जानी वाली विषयों के विस्तार हो गया है । शिक्षा, स्वास्थ, पर्यावरण आदि विकास जनित मुद्दे को भी जागरूकता की दृष्टि से स्थान दिया जाने लगा है । पर जो भी हो सुई और धागों की ये प्रेम गाथा जो हाजरों सालों से हमारे जीवन मे रची बसी हुई थी आज विकास के चक्र में इसके रंगीन धागे उलझ कर टूटती जा रही है और एक-एक कर इनके शिल्पी इनसे दूर होते जा रहें है । 

Comments

  1. बहुत बढ़िया आलेख सुजनी लोक कला के बारे में दिया ,सुजनी हस्त कला का विकास बिहार से बाहर भी होना चाहिए।

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